आलोचना >> हिन्दी उपन्यास राष्ट्र और हाशिया हिन्दी उपन्यास राष्ट्र और हाशियाशंभुनाथ
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"हिंदी उपन्यास : राष्ट्र और हाशिया की आलोचनात्मक दृष्टि"
हम उपन्यास को सांस्कृतिक पाठ के रूप में कैसे पढ़ सकते हैं, बीसवीं सदी से आज तक हिंदी उपन्यास ने किन रास्तों से प्रगति की, कथाकारों ने राष्ट्र और हाशिये के रिश्तों को कैसे देखा, भारतीय उपन्यास क्यों ‘राष्ट्रीय रूपक’ की जगह ‘ह्यूमन एलेगरी’ और विस्थापित इतिहास की ‘अनसुनी आवाजें’ हैं और इनमें कैसी विश्व दृष्टि है-इन सवालों से टकराती है आलोचना पुस्तक ‘हिंदी उपन्यास : राष्ट्र और हाशिया’। शंभुनाथ ने इसमें हिंदी के कई महत्त्वपूर्ण उपन्यासों को सैद्धान्तिक क्लिशे से हटकर एक खुली जमीन से देखा है, साथ ही वैश्वीकरण के कठिन समय को भी पहचाना है।
पुस्तक में ‘राष्ट्र बनाम हाशिया’ की जगह ‘राष्ट्र और हाशिया’ के प्रश्नों पर आलोचनात्मक संवाद है। यह पहली बार एक बड़े फलक पर हिंदी उपन्यास का मूल्यांकन है। इसमें राष्ट्र पर मँडराती नव-औपनिवेशिक छायाओं को समझने के साथ, हाशिये के विमर्शों-स्त्री, दलित, कृषक, आदिवासी और ‘स्थान’ के सवालों पर भी खुले मन से चर्चा है। शंभुनाथ के लिए आलोचना कट्टरताओं के बीच जीवन के लिए जगह बनाना है, जो उनकी पारदर्शी भाषा में यहाँ भी देखने को मिलेगी।
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